भक्त शिरोमणि श्रीकाकभुशुण्डीजी की श्रीरामभक्ति एवं गरुड़जी के सन्देह का निवारण

डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
103, व्यासनगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.) 456010
मोबा. नं. 9424560115

यह प्रसंग श्रीरामचरितमानस के लंकाकाण्ड में उस समय का है जब श्रीराम और मेघनाद के मध्य युद्ध हो रहा था। करुणासागर-लीलाधारी भगवान् श्रीराम मेघनाद के पाश में लक्ष्मणजी सहित बँध गए। श्रीराम को बँधन से मुक्त करने के लिए देवर्षि नारदजी ने गरुड़जी को भेजा। गरुड़जी ने नागपाश काटकर उन्हें बंधनमुक्त कर दिया किन्तु गरुड़जी के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया कि यदि ये सर्वशक्तिमान भगवान हैं तो तुच्छ राक्षस मेघनाद के बंधन में कैसे फँस गए। कथा प्रसंग में शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं कि गरुड़ कैसे काकभुशुण्डीजी के पास क्यों गए आदि।
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा।।
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इन्द्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयं प्रचंड विषादा।।
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती।।
व्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनेउँ जग माही देखउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।
दोहा- भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम।।
नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदय भ्रम छावा।।
खेद भिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ७-५८-४-५८-५९-१
हे गिरिजे! मैंने (शंकरजी ने) वह सब इतिहास कहा कि जिस समय वे काकभुशुण्डी के पास गए थे। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षिकुल के ध्वजा गरुड़जी उस काक के पास गए थे। जब श्रीरघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने आपको बँधा लिया। तब देवर्षि नारदजी ने गरुड़जी को भेजा। सर्पों के भक्षक गरुड़जी बंधन काट कर चले गए। तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे कि जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया मोह से परे परमेश्वर हैं मैंने सुना था कि जगत में उन्हीं का अवतार है किन्तु मैंने उस अवतार का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा। जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया। गरुड़जी ने अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और अधिक छा गया। संदेह के दु:ख से दु:खी होकर मन में कुतर्क बढ़ाकर तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गए।
व्याकुल होकर गरुड़जी देवर्षि नारदजी के पास गए और अपने मन का सन्देह उनके सामने प्रकट किया। उसे सुनकर देवर्षि नारदजी को दया आ गई, उन्होंने कहा हे गरुड़! सुनिए श्रीरामजी की माया बड़ी ही बलवती है। उनकी माया ने मुझे भी कई बार नचाया है। हे गरुड़! आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। अत: हे पक्षिराज! आप ब्रह्माजी के पास जाइए और वहाँ जो वह कहे ऐसा करना। नारदजी श्रीरामजी का गुणगान करते हुए और बारम्बार श्रीहरिजी की माया के बल का वर्णन करते हुए चले गए। तत्पश्चात् पक्षिराज गरुड़जी, ब्रह्माजी के पास गए तथा उन्हें भी अपना सन्देह बताया। गरुड़जी से ब्रह्माजी ने कहा कि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है फिर भी मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब पक्षिराज गरुड़ को मोह होना आश्चर्य की बात नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी ने गरुड़जी से कहा कि- श्रीरामजी की महिमा महादेवजी जानते हैं। हे गरुड़! तुम महादेवजी के पास जाओ। हे तात्! और कहीं किसी से न पूछना तुम्हारे सन्देह का नाश उनके पास जाकर ही होगा। गरुड़जी बड़ी आतुरता से शंकरजी के पास गए। शंकरजी ने उमाजी से कहा उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थीं।
गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी! मैंने बड़े प्रेम से उससे कहा- हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊँ। सब सन्देहों का तो नाश होगा, जब दीर्घकाल तक सत्संग किया जाए। हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्रीरामजी के चरणों में दृढ़ प्रेम होगा। बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्रीरघुनाथजी नहीं मिलते अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डीजी रहते हैं। वे राम भक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल से हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं। वहाँ जाकर श्रीहरि के गुण-समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। शंकरजी के समझाने पर गरुड़जी ने उनके चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर काकभुशुण्डीजी के पास जाने का निश्चय कर चल दिए। शंकरजी ने उमा से कहा कि गरुड़जी को मैंने इसलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका भेद (मर्म) पा गया था। गरुड़जी ने अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्रीरामजी नष्ट करना चाहते हैं।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कैभाषा।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन उस ग्यानी।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ६२ (क) ५
हे पार्वती मैंने गरुड़जी को अपने पास नहीं रखा क्योंकि पक्षी पक्षी की बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया बड़ी ही बलवती है ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले। भगवान् शंकरजी के आज्ञानुसार गरुड़जी नीलाचल पर काकभुशुण्डी के आश्रम का ऐसा प्रभाव था कि वहाँ पहुँचते ही विष्णुजी के वाहन गरुड़जी का सारा संशय (सन्देह) छिन्न हो गया। गरुड़जी स्नानादि से निवृत्त होकर काकभुशुण्डीजी के समीप उस समय पहुँचे तब वे हरिकथा प्रारम्भ करने जा रहे थे। उन्होंने गरुड़जी का सम्मानपूर्वक स्वागत किया और उनके इच्छानुसार धीरे-धीरे विस्तारपूर्वक परम पावन सम्पूर्ण श्रीरामचरित सुनाया। तत्पश्चात् काकभुशुण्डी ने अपने पूर्व जन्म की कथा उन्हें बताई। उन्होंने बताया कि पूर्व में किसी कल्प में कलियुग में मेरा जन्म अयोध्या में शूद्र-कुल में हुआ था। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ा मैं इस कारण उज्जैन चला गया यथा-
तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सुद्र तनु पाई।।
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड-९७(क)।
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी।।
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड १०५ (क)।
उस कलियुग में अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन वचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निन्दा करने वाला अभिमानी था। हे सर्पों के शत्रु गुरुजी! सुनिये। मैं दीन मलिन (उदास) दरिद्र और दु:खी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ सम्पत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान शंकरजी की आराधना करने लगा। उज्जैन में भगवान श्रीशंकरजी के उपासक परम साधु एक सरल ब्राह्मण निवास करते थे। उन्होंने मुझे कृपा कर शिव-मन्त्र की दीक्षा प्रदान कर दी। मैं भगवान् शंकरजी का परम भक्त था किन्तु श्रीराम-श्रीकृष्ण के प्रति मेरे मन में बड़ी ईर्ष्या थी। इतना ही नहीं मैं सदा उनकी निन्दा किया करता था। मेरे गुरुजी यह जानकर बहुत दु:खी हुए। वे मुझे बार-बार शिवजी एवं श्रीरामजी का अभेद तत्व समझाते थे। वे कहते हैं कि- भगवान् शंकरजी सदा ही अत्यन्त श्रद्धापूर्वक श्रीरामनाम का जप करते हैं। तुम्हें श्रीराम के प्रति द्वेष नहीं करना चाहिए। इस प्रकार गुरुदेव के बार-बार समझाने पर भी मेरे मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। मैं तो अहंकार में चूर था और परम पूज्य गुरुदेव की उपेक्षा करता रहता था।
एक समय की बात है कि मैं अपने इष्ट आराध्य देव शंकरजी के मंदिर में उनका नाम जप रहा था। उसी समय वहाँ मेरे गुरुजी पधारे किन्तु मैंने अहंकार के कारण उठकर उन्हें प्रणाम नहीं किया। मेरे गुरुदेव के मन में कोई विचार नहीं हुआ पर मेरी यह उदण्डता भगवान शिव नहीं सह सके। उन्होंने तुरन्त शाप दिया तथा आकाशवाणी हुई, यह एक सहस्त्र जन्म ग्रहण करेगा। इस आकाशवाणी से मेरे दयालु गुरुदेव हाय! हाय! कर उठे। उन्होंने प्रभु से अत्यन्त करुण स्वर में प्रार्थना की। गुरुदेव की प्रार्थना से सन्तुष्ट होकर शिवजी ने कहा- ‘मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। इसे अधम योनियों में एक हजार बार अवश्य जन्म लेना पड़ेगा। किन्तु इसे जन्म और मृत्यु का कष्ट नहीं होगा। जो भी शरीर इसे प्राप्त होगा, यह अनायास ही बिना कष्ट के त्याग देगा। मेरी कृपा से इसे ये सारी बातें याद रहेगी। अंतिम जन्म में यह उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होगा। उस समय इसे भगवान श्रीराम के चरणों में प्रीति प्राप्त हो जाएगी और इसकी अव्याहत गति होगी। यथा-
रघुपति पुरीं जन्म तव भयऊ। पुनि तै मम सेवाँ मन दयऊ।।
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजाहि उर तोरें।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड – १०९ (क) ५
प्रथम तो तेरा (काकभुशुण्डी का) जन्म श्री रघुनाथजी की पुरी में हुआ, फिर तूने मेरी सेवा में मन लगाया। अयोध्यापुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में श्रीराम भक्ति उत्पन्न होगी। तुम्हारे लिए जगत में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी अर्थात् तुम जहाँ भी जाना चाहोगे बिना रोक-टोक के जा सकोगे। आकाशवाणी के द्वारा शिवजी के वचन सुनकर मेरे गुरुजी प्रसन्न होकर ऐसा ही हो यह कहकर मुझे नाना प्रकार से समझाकर और शिवजी के चरणों को हृदय में रखकर घर चले गए। काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ। कुछ काल बीतने पर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया। हे पक्षिराज गरुड़! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया वस्त्र धारण कर लेता है। मैं तिर्यक-योनि (पशु-पक्षी) देवता या मनुष्य का जो भी शरीर धारण करता, वहाँ उस शरीर से मैं श्रीरामजी का भजन करता। किन्तु एक शूल मेरे हृदय में सदा चुभता रहता था कि गुरुजी का कोमल स्वभाव मुझे कभी भी विस्मृत नहीं होता था जिनका मैंने अपमान किया था। मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं बाल्यावस्था में श्रीरघुनाथजी की सब लीलाएँ किया करता था। माता-पिता के समझाने पर भी पढ़ता-लिखता नहीं था। मेरे माता-पिता कालवश हो गए अर्थात मृत्यु हो गई। मैं श्रीराम के भजन करने वन में चला गया तथा अनेक मुनियों के आश्रमों में जाकर उन्हें सिर नवाता।
हे गरुड़जी! उन मुनियों से मैं श्रीराम के गुणों की कथाएँ पूछता। जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। उनका यह निर्गुणमत मुझे नहीं सुहाता था। मेरे हृदय में तो सगुण ब्रह्मा पर प्रीति बढ़ रही थी। इसी प्रकार मैं ब्रह्मर्षि लोमशजी के आश्रम में पहुँच गया और उनके चरणों में प्रणाम करके मैंने उनसे सगुण-साकार का समर्थन करता रहता था। महर्षि लोमशजी ने मुझे अनेक बार समझाया पर मैं समझने को तत्पर नहीं रहता था। जब मैंने बारम्बार सगुण मत का पक्ष स्थापित किया तब मुनि क्रोधपूर्वक बोले-
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रति उत्तर बहु आनसि।।
सत्यबचन बिस्वास न कर ही। बायस इव सबही ते डरही।।
सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ।। २ (क) ७-८
अरे मूढ़। मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ तो भी तू उसे मानता नहीं है और बहुत से उत्तर-प्रत्युत्तर देता है। मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता है। कौए की भाँति सभी से डरता है। अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है अत: तू शीघ्र चाण्डाल कौआ हो जा। मैंने आनन्द के साथ मुनिजी के शाप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आई। तत्काल मेरा शरीर कौए का हो गया किन्तु इसका मुझे तनिक भी क्लेश नहीं हुआ। मैंने अत्यन्त आदरपूर्वक मुनि लोमशजी के चरणों में प्रणाम किया और उड़कर जाना ही चाहता था कि दयालु लोमश मुनिजी के हृदय में मुझ जैसे ब्राह्मण बालक को शाप देने पर पश्चाताप हुआ। उन्होंने अत्यंत ही स्नेह से मुझे बुलाया और अनेक प्रकार से मुझे प्रसन्न करते हुए मुझे भगवान श्रीराम के बालस्वरूप का ध्यान तथा श्रीराम-मन्त्र प्रदान किया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेरे मस्तक पर अपना स्नेहमय कर-कमल फेरते हुए मुझे आशीष प्रदान किया कि तुम्हारे हृदय में श्रीराम-भक्ति सदा बनी रहे और श्रीराम तुम्हें सदा प्यार करें। ज्ञान-वैराग्य एवं सम्पूर्ण शुभ गुण तुममें सदा निवास करेंगे। तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे और तुम्हारी मृत्यु भी तुम्हारी इच्छानुसार होगी।
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिही काऊ।।
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।।
बिन श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव देह राम पद होऊ।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ११४ (क) १-२
काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दु:ख तुमको कभी ब्यापेगा नहीं। अनेकों प्रकार के सुन्दर श्रीरामजी के रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण) जो इतिहास और पुराणों में गुप्त और प्रकट है, तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम के जान जाओगे। श्रीरामजी के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मन में तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्रीहरि की कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी। साथ ही साथ तुम जिस आश्रम में निवास करोगे, वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या, माया, मोह प्रविष्ट नहीं हो सकेंगे।
मैं कृतार्थ हो गया और गुरुजी की आज्ञा प्राप्त कर मैंने उनके चरणों की वंदना की तथा फिर यहाँ आ गया। यहाँ रहते हुए मुझे सत्ताइस कल्प व्यतीत हो गए। श्री भगवान जब जब अवतार ग्रहण करते हैं, तब-तब मैं श्रीराम की पाँच वर्ष की आयु तक उनके भुवन मोह के रूप एवं अत्यन्त दुर्लभ बाल-लीला को देखकर कृतार्थ होता हूँ और फिर हृदय में उनके इस शिशु रूप को देखकर यहाँ इस आश्रम में लौट आता हूँ। हे पक्षिराज! सुनिये जो लोग श्रीहरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनीवाले अर्थात् अभागे बिना ही जहाज के तैर कर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं।
सुनि भसुंडि के बचन भवानी बोलेउ गरुड़ हरषि मृदुबानी।।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ११५ (क) ३
शिवजी कहते हैं हे भवानी! काक भुशुण्डी के वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद (कृपा) से मेरे हृदय में अब सन्देह, शोक, मोह और भ्रम नहीं रह गया।
यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति।
निन्दित: सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते।।

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