मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्श राज्य शासन की प्रासंगिकता

डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
103, व्यासनगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.) 456010
मोबा. नं. 9424560115

श्रीराम के अनन्त गुण हैं, उनका वर्णन कोई नहीं कर सकता यथा-
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सतकोटि अहीसा।।
श्रीरामचरितमानस बाल. १०५-२
याज्ञवल्क्यजी मुनि भरद्वाज से कहते हैं कि हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। भगवान् श्रीराम जीवों पर दया करके अवतार ग्रहण करते हैं और लीला करते हैं जिसके गायन तथा अनुकरण से सृष्टि के जीवों का कल्याण होता है, तुलसीदासजी ने श्रीराम अवतार लेने का कारण बहुत स्पष्ट बताया है-
दो. बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।
श्रीरामचरितमानस बाल दो. १९२
ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के हितार्थ भगवान् ने मनुष्य का अवतार ग्रहण किया। वे माया (अज्ञानमयी, मलिना) और उसके गुण-सत-रज-तम तथा (बाहरी और भीतरी) इन्द्रियों से परे है। उनका दिव्य शरीर उनकी अपनी इच्छा से बना है (किसी कर्म के बन्धन से लाचार विवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों) के द्वारा नहीं।
श्रीराम के गुण और चरित्र परम आदर्श है तथा उनका इतना प्रभाव था कि जिसकी तुलना हो ही नहीं सकती है। यही कारण था कि श्रीराम के गुणों और चरित्रों का प्रभाव उनके राज्य के शासनकाल में त्रेतायुग भी सत्ययुग से बढ़कर हो गया था। रामराज्य के बारे में श्रीरामचरितमानस में ऐसा सुन्दर वर्णन है-
राम राज बैठे त्रैलोका। हरर्षित भए गए सब सोका।
बयरू न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड २०-४
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहूहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
चारि चरन धर्म जगमाहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अधनाही।।
राम भगति रतनर अरुनारी। सकल परम गति के अधिकारी।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दु:खी न दीना। नहि कोउ अबुधन लच्छन हीना।।
सब निर्दभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतज्ञक्रहिं कपट सयानी।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड २१-१-२-३-४
श्रीराम के राज्य में प्रजा अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार वेदों में बताए मार्ग पर चलते हैं अर्थात वेदों में वर्णित जीवनशैली अपनाते हैं इस कारण सुख प्राप्त करते हैं। भय, शोक, रोग तथा उन्हें दैहिक (शरीर का) दैविक (देवताओं द्वारा) और भौतिक (धन-सम्पत्ति का) ताप या कष्ट कहीं नहीं था। प्रजा में राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-लोभ, झूठ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणों का नामों निशान नहीं था। श्रीराम के राज्य में सब लोग (प्रजा) परस्पर प्रेम करते हैं और अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म के चारों चरणों-सत्य, शौच, दया और दान से संसार परिपूर्ण है। उनके शासनकाल में राज्य में स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं होता है। सभी स्त्री-पुरुष श्रीराम के भक्त हैं और सभी इस कारण परमगति अर्थात मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी हैं। प्रजा में किसी की भी अल्पायु में मृत्यु नहीं होती है तथा उनमें किसी भी प्रकार की पीड़ा या कष्ट नहीं होता है। सभी प्रजाजन सुन्दर एवं नीरोग है। सभी नर-नारी अभिमान रहित, धर्म परायण, अहिंसावादी, पुण्यात्मा, चतुर, गुणवान् ही नहीं गुणों का आदर करने वाले पण्डित, ज्ञानी और कृतज्ञ हैं।
श्रीराम के राज्य में प्रजा के अतिरिक्त पशु-पक्षी, भूमि, वृक्ष चन्द्रमा और देवताओं की कृपा का भी वर्णन देखते ही बनता है-
फूलहि फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना वृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंद।।
लता बिटप मागे मधु चवहीं। मन भावतो धेनु पय रत्रवहीं।।
ससि संपन्न रथ धरनी। त्रेतां भइकृत जुग कै करनी।।
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनिखनि। जगदातमा भूप जग जानी।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।
दो. बिधु महिपूर मयूरवन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मांगे बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड २३ से ५ तक एवं दोहा २३
श्रीराम के राज्य में प्रजा सुखी है। प्रकृति में वन वृक्ष, पुष्प, पशु, पक्षी नदी, समुद्र, तालाब, पहाड़, खनिज सम्पत्ति एवं बादलों के माध्यम से प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन अद्भुत है। श्रीराम के राज्य में वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं इसका तात्पर्य यह है कि वृक्षों की कटाई नहीं होती थी, जिससे प्रजा फल-फूल के साथ ही साथ वर्षा का लाभ भी वृक्षों के कारण होता था। श्रीराम के राज्य में वायु एवं जल का प्रदूषण नहीं था। श्रीराम के राज्य में हाथी और सिंह शत्रुता भूलकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशुओं ने भी अपना-अपना स्वाभाविक बैर त्याग कर आपस में प्रेम से एक साथ रहते हैं। पक्षी कूंजते हैं अर्थात मीठी सुरीली बोली बोलते हैं भाँति भाँति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते हैं और आनन्द प्राप्त करते हैं। शीतल, मन्द, सुगन्धित पवन चलता रहता है इस प्रकार उनके राज्य में प्रदूषण की समस्या नहीं थी और पुष्पों का रस लेकर चहकते हुए गुंजार करते रहते हैं। इतना ही नहीं लताएँ (बेले) और वृक्ष माँगने से मधु (मकरन्द) टपका देते हैं इसका अर्थ यह है कि लता एवं वृक्षों के हरे भरे रहने से शहद के मधुमक्खियों के छत्तों की खूब भरमार रहती है। गौएँ मन चाहा दूध देती है। गायों का पालन विशेष ध्यानपूर्वक किया जाता था दूध दही-घी की श्रीराम के राज्य में कोई कमी नहीं है। वृक्षों की कटाई न होने से बादल उनसे आकर्षित होकर आ आकर धरती पर पर्याप्त वर्षा करते हैं, जिससे धरा सदैव हरी-भरी रहती है। तुलसीदासजी ने श्रीराम के राज्य के शासन को त्रेतायुग में होने पर भी सर्वश्रेष्ठ सत्ययुग की उपमा दी है क्योंकि सत्ययुग की सारी परिस्थितियाँ श्रीराम के राज्य में विद्यमान है। प्रकृति में पर्वतों ने यह जानकर कि श्रीराम का अवतार जग मंगल हेतु है अत: उसके पास रक्खी रत्नों की खान प्रकट कर दी। श्रीराम के राज्य में पर्याप्त खनिज सम्पदा थी। राज्य में जल प्रदूषण नहीं था उनके शासनकाल में देश की सभी नदियाँ शीतल, निर्मल और सुखद ही नहीं मीठा स्वादिष्ट जल सहित बहती है। मनुष्य तो मनुष्य समुद्र भी अपनी मर्यादा में रहकर कार्य करता है अर्थात तूफान एवं विनाशकारी कार्यों को त्यागकर प्रजा के लिए अपनी सारी गुप्त सम्पदा किनारे छोड़ देता है। तालाब कमलों से परिपूर्ण है तथा चारों ही नहीं दसों दिशाओं में प्रसन्नता का वातावरण है। श्रीराम के राज्य में चन्द्रमा की प्रसन्नता से वातावरण शोभा दे रहा है। राज्य में चन्द्रमा की शीतलता से धरती परिपूर्ण हो जाती है, सूर्य भी मर्यादा में रहकर जितनी प्रजा को आवश्यकता है ताप देता है। इन दोनों को देखकर बादल भी उनका अनुकरण करते हैं, प्रजा को उतनी वर्षा करते हैं जो कृषि के लिए आवश्यक है। इस प्रकार श्रीराम के राज्य में अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि से अकाल-भूखमरी की समस्या नहीं थी। राम राज्य से भारत भी आत्मनिर्भरता की शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
रामराज्य की यह व्यवस्था एक आदर्श राज्य की व्यवस्था है जिसकी आज भी संसार में कोई भी प्रशंसा करते हुए थकता नहीं है अथवा आदर्श राज्य की बात करता है। हम भी आज भारत में रामराज्य की परिकल्पना करते हैं ताकि भारत में नहीं अपितु विश्व में सुख-शांति-सम्पन्नता का वातावरण बन सके। श्रीराम की तथा उनके शासन की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है यथा-
कहाँ कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड १२६-४
अत: अब उनके राज्य में शासन व्यवस्था के साथ सामाजिक व्यवस्था को माता-पिता, बन्धु-मित्र, स्त्री-पुरुष, सेवक-प्रजा आदि के साथ उनके आदर्श व्यवहार का अनुकरण कर हम भी सुखी हो सकते हैं।

श्रीराम की मातृभक्ति

प्रात:काल उठिके रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २०५-२
तुलसीदासजी मनोविज्ञान के अनुसार सर्वप्रथम स्थान माता को देते हैं क्योंकि बालक माता के सम्पर्क में अधिक समय तक रहता है। इसके पश्चात् पिता एवं गुरु के पास जाकर संस्कार और शिक्षा प्राप्त करता है। श्रीराम की मातृशक्ति जन्मदाता कौसल्याजी के प्रति है। उनके हृदय में महान आदर है किन्तु उससे भी बढ़कर वे कैकेयीजी का भी उतना ही सम्मान करते हैं जितना माता कौसल्याजी का। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि माता कौसल्याजी श्रीराम से कहती हैं कि, ‘पिता से माता की आज्ञा बढ़कर होती है अत: राम तुम वन में न जाओ यथा-
जौ केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बडि माता।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ५६-१
यह सुनकर श्रीराम ने कैकेयी माता की आज्ञा बताई तथा वन को चले गए और अंत में कौसल्याजी को मानना पड़ा। बाल मनोविज्ञान के अनुसार माता ही बालक की प्रथम गुरु होती है पिता तथा गुरु का प्रवेश इसके बाद जीवन में होता है। कौसल्याजी एक आदर्श माता के रूप में राम को वन जाने देती है तथा कहती हैं कि वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियाँ माता होंगी। यहाँ तक वन के पशु-पक्षी तुम्हारे चरण कमलों के सेवक होंगे। वन भाग्यवान है और अवध अभागी है जिसे तुमने त्याग दिया।
कैकेयी को भी चित्रकूट में श्रीराम-सीता-लक्ष्मण को देखकर जो पछतावा हुआ वह एक सच्ची दु:खी माता की भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण है-
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अधाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महिन बीच बिधि मीचु न देई।।
श्रीरामचरितमानस अयो. काण्ड २५२-३
सीताजी सहित श्रीराम लक्ष्मण का सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है किन्तु धरती बीच फटकर समा जाने के लिए रास्ता नहीं देती है और विधाता मौत क्यों नहीं दे देता।
भरतजी के साथ जब कैकेयी वन (चित्रकूट) में पहुँचती है तब श्रीराम सब माताओं में से सबसे पहले कैकेयी माता से मिलते हैं और उनके संकोच को दूर कर देते हैं-
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगतिमति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर थरि खोरी।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड २४४-४
सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को शीतल कर देते हैं। तत्पश्चात् माता कैकेयीजी के चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर पर दोष मढ़कर उनको सान्त्वता दी।

श्रीराम की पितृभक्ति

श्रीराम की पितृभक्ति अत्यन्त ही अनूठी है। श्रीराम को पिता द्वारा स्पष्ट वन को जाने की आज्ञा न दिए जाने पर तथा कैकेयी के द्वारा पिता की आज्ञा बताने पर प्रसन्नतापूर्वक चौदह वर्ष वन जाने को वे तैयार हो गए। श्रीराम माता कैकेयी को कुछ भी भला बुरा न कह कर कहा कि-
सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोष निहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्या काण्ड ४१-४
हे माता! सुनो वही पुत्र बड़भागी (भाग्यवान) है जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी अर्थात पालन करने वाला है। (आज्ञा पालन के द्वारा) माता-पिता को सन्तुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है।

श्रीराम की गुरुभक्ति

श्रीराम के कुल गुरु वसिष्ठजी हैं तो दूसरी तरफ उनके शिक्षा गुरु विश्वामित्रजी हैं। श्रीराम के लिए दोनों गुरु आदर्श हैं। वे दोनों गुरुओं के प्रति सेवाभाव समान रखते हैं। गुरु के प्रति कितनी श्रद्धा, उनकी सेवा करने में प्रसन्नता और उनके साथ दैनिक दिनचर्या में कैसी विनम्रता होनी चाहिए? इन बातों का आदर्श श्रीराम की गुरु भक्ति में यत्र-तत्र-सर्वत्र देखने को मिलती है। विश्वामित्रजी अपने यज्ञ की रक्षा हेतु जब श्रीराम-लक्ष्मण को वन में ले गए तो उन्होंने सोचा अभी यह दोनों बालक हैं अत: इनको भूख-प्यास न हो अत: यह विद्या उन्हें दी-
तब रिष निज नाथहिं जियँ चीन्ही। विद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।
जाते लाग न धुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २०९-४
उस समय ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम को मन में विद्या का भण्डार समझते हुए भी (लीला पूर्ण करने के लिए) उन्हें ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल तथा तेज प्रकाश हो। श्रीराम-लक्ष्मण द्वारा गुरु की सेवा कैसी करनी चाहिए? यह है-
तेई दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २२६-३
रात्रि में दोनों भाई नियमपूर्वक मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक महर्षि विश्वामित्रजी के चरणकमलों को दबा रहे हैं। मुनि उन्हें बार-बार आज्ञा देते हैं तब श्रीरामजी जाकर शयन करते हैं। श्रीराम अपने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठजी के आश्रम में विद्या प्राप्त करने गए तब क्या हुआ?
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।।
गुरगृह गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २०४-२
ज्यों ही चारों पुत्र कुमारावस्था के हुए त्यों ही गुरु पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी सब भाईयों सहित गुरु के आश्रम में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ प्राप्त हो गई। यहाँ विचारणीय प्रश्न है कि चारों भाई राजकुमार थे फिर भी राजमहल में गुरुजी को आमन्त्रित न कर उनके आश्रम में जाकर विद्या प्राप्त की यह उनकी विनयशीलता का श्रेष्ठ उदाहरण है। एक बार वसिष्ठजी श्रीराम से (भगवान् से) उनके चरणकमलों में जन्म जन्मान्तर प्रेम बना रहे, यह माँगने आते हैं और भगवान उनसे एकान्त में मिलते हैं, उस समय भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने गुरुभक्ति का आदर्श स्थापित किया तथा गुरु का सम्मान उनके पद की गरिमा सदैव रहे यह किया है-
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारी पादोदक लीन्हा।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ४८-१
श्रीरघुनाथजी ने वसिष्ठजी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत ग्रहण किया।
आज हम क्या देख रहे कि पर्यावरण समस्या सुरसा के समान विकराल मुख खोलकर खड़ी है। नए कारखानों, कई कॉलोनियों के निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण आदि में वृक्ष काटे जा रहे हैं। इससे हमारे पर्यावरण एवं जलवायु की समस्या बढ़ रही है। वृक्षों पर निवास करने वाले पक्षीगण लुप्त होते जा रहे हैं। सघन वनों में रहने वाले कई प्राणियों की प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही है। श्रीराम के राज्य में सभी पशु-पक्षी एवं वन्यजीव निर्भय होकर निवास करते थे। आज वर्तमान समय में पक्षियों में बर्ड फ्लू तथा अन्य प्राणियों में स्वाइन फ्लू जैसे प्राणघातक रोगों में वृद्धि हो रही है जिसके कारण निरीह प्राणी काल के ग्रास में समाते चले जा रहे हैं जो कि मानव जीवन के लिए भी प्रदूषण फैला रहे हैं। श्रीराम राज्य में सभी पशु-पक्षी निडर होकर निवास करते थे और पर्यावरण सन्तुलन बना रहता था। प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा प्रजाजनों को आल्हादित करती रहती थी। भारत की नदियाँ भी आज जल प्रदूषण से मुक्त नहीं है। हमें श्रीराम के रामराज्य को लाने के लिए तन-मन-धन से प्रयास करना चाहिए ताकि हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को सुखी-स्वस्थ-सम्पन्न रख सके। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि-
रामचरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ५२-१

Leave a Comment