दिल के लहू में आँखों के पानी में रहते थे : डॉ. विजय सुखवानी

उज्जैन। मुनि नगर स्थित डॉ. श्रीकृष्ण जोशी के निवास पर ग़ज़लांजलि की काव्य-संगोष्ठी आयोजित की गई। सरस्वती वन्दना से प्रारम्भ हुई गोष्ठी में आज रामदास समर्थ का उनके बहत्तरवें वर्ष में प्रवेश पर सम्मान किया गया। गोष्ठी प्रारम्भ करते हुए अवधेश वर्मा नीर ने वर्तमान के महत्त्व पर नदी काल की बहे अनवरत भूत भविष्य का ध्यान नहीं… कविता पढ़ी।

डॉ. विजय सुखवानी ने बहुत भावपूर्ण ग़ज़ल दिल के लहू में आँखों के पानी में रहते थे, हम जब माँ-बाप की निगहबानी में रहते थे… पढ़ी। शायर आशीष अश्क ने ग़ज़ल अश्क ने तुझको निभाया है बहुत दे कभी उसको दिलासा ज़िन्दगी… पढ़ी तो विजयसिंह गहलोत साकित ने उन्हें ज़िन्दगी का अर्थ अपनी ग़ज़ल अनचाहे रास्तों पे चलाती है ज़िन्दगी, अपने उसूलों से हटाती है ज़िन्दगी… से समझाया है। विनोद काबरा ने क्रिसमस पर लिखे अपनी व्यंग्य रचना संता तेरी वन्दना करता हूँ दिन-रात, मिल जाए मुझको जगह, दे दूजे को मात… सुनायी। दिलीप जैन ने इंसान के घमण्ड पर रचना पढ़ी बदलता नहीं है लोहे का स्वभाव या रंग, उसका नाश करता है उसका अपना ही जंग, संस्था के नये सदस्य रामदास समर्थ ने फूल रस मधुपान सा परागकण में खोजती, पंख पसारे रंगीले फूलों पर मंडराती तितली कविता पढ़ी। अशोक रक्ताले ने नये वर्ष के आगमन की सच्चाई पर छंद पढ़े बदलेगा कुछ भी नहीं, लेकिन होगा शोर, ढमढम ढमढम आ गया, नये वर्ष का भोर। डॉ. अखिलेश चौरे ने हम तो समझते थे जिन्हें अब हैं भरे हुए, वो ज़ख्म ज़िक्र आते ही तेरा हरे हुए ग़ज़ल पढ़ी। प्रफुल्ल शुक्ला ने व्यंग्य दूध का फैट के हिसाब से रेट लगता है, बजट के हिसाब से मकान का गेट लगता है पढ़ी। डॉ. श्रीकृष्ण जोशी ने अध्यक्षीय रचना पढ़ी तो डॉ. हरिमोहन बुधौलिया ने गोष्ठी की समीक्षा प्रस्तुत की। डॉ. आवेश जैन मुंबई आज अतिथि के रूप में काव्य-संगोष्ठी में सम्मिलित हुए।

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