तीनों युगों में वीर जाम्बवान्जी चरित्र

डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्री’, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
103, व्यासनगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.) 456010
मोबा. नं. 9424560115

ऋक्षपति जाम्बवान्जी की उत्पत्ति ब्रह्माजी की जम्हाई से हुई है। इस कारण इन्हें पद्मयोनि ब्रह्मा का अंशावतार कहा गया है। भगवान् की सेवा के लिए ब्रह्माजी अपने एक रुप से जाम्बवान् जी के रूप में धरती पर पधारे थे। यह सुग्रीव के सबसे अधिक आयु वाले और बुद्धिमान ही नहीं शक्तिशाली मंत्री भी थे। जाम्बवान् की पत्नी का नाम व्याघ्री था। ये तीनों युग में प्रभु की सेवारत रहे। इन्होंने सतयुग में भगवान् विष्णु के वामन अवतार ग्रहण करने के समय उनकी सात बार प्रदक्षिणा की थी। त्रेता में श्रीरामजी के साथ रह कर उनकी सहायता की थी। द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण से युद्ध किया और उनसे परास्त होने पर श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान हैं और श्रीरामजी ही श्रीकृष्ण हैं, यह ज्ञात होने पर इन्होंने अपनी पुत्री जामवन्ती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया तथा श्रीकृष्ण को श्यामन्तक मणि प्रदान की थी। जामवन्ती के पुत्र साम्ब हुए तथा इनकी उद्दण्डता के कारण शाप से यदुवंशियों में आपसी विवाद हुआ तथा सब यदुवंशी आपस में लड़-लड़कर नष्ट हो गए। जाम्बवान्जी के परामर्श से सुग्रीव, अंगद एवं हनुमान् सदा कार्य करते थे। जाम्बवान् आयु में सबसे बड़े थे, वे अत्यन्त बुद्धिमान, महाबलशाली एवं प्रबल पराक्रमी भी थे।
जाम्बवान्जी के संक्षिप्त जीवन परिचय के उपरान्त उनका श्रीरामकथाओं में क्रिया-कलाप एवं भूमिका जानना आवश्यक है अन्यथा उनके बारे में अल्पज्ञान ही रहेगा। अतएव यहाँ श्रीरामचरितमानस, अध्यात्म रामायण आदि से श्रीराम के साथ उनके कार्यों का विवरण दिया जा रहा है। श्रीरामचरितमानस में उनका आगमन सर्वप्रथम किष्किन्धाकाण्ड में सुग्रीव एवं श्रीराम के समक्ष होता है। सुग्रीव उन्हें सीताजी की खोज के लिए अनुभवी और योग्य समझ कर कहते हैं-
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना।।
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा। २३-१
हे धीरबुद्धिवाले और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान् और हनुमान्! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना। जाम्बवान्, अंगद एवं हनुमानजी आदि प्यास से व्याकुल होकर स्वयंप्रभा के गुफा में रहे तथा स्वयंप्रभा भी उन्हें समुद्र तट पर छोड़कर बदरिकाश्रम चली गई। इस बीच सुग्रीव द्वारा दी गई सीताजी की खोज की अवधि समाप्त हो गई। अंगद को यह चिन्ता हुई कि सुग्रीव ने उन्हें स्पष्ट कहा था कि सीताजी की खोज महीनेभर में कर वापस आना है। यदि वे महीनेभर की अवधि बिताकर सीताजी का बिना पता लगाए ही लौट आएगा उसका उसके द्वारा वध कर दिया जाएगा। जाम्बवान् धीर-गम्भीर एवं अनुभवी वृद्ध योद्धा थे अत: उन्होंने अंगद को धैर्यपूर्वक समझाया-
जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी।।
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा २६-६
जाम्बवान्जी ने अंगद का दु:ख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कही। बोले हे तात्! श्रीरामजी को मनुष्य न माने, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो। हम सब सेवक अत्यन्त बड़भागी हैं, जो निरन्तर सगुण ब्रह्म श्रीरामजी में प्रीति रखते हैं। इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे थे कि उनकी बातें पर्वत की कन्दरा में जटायु के बड़े भाई सम्पाती ने सुनी। सम्पाती कई दिनों से भूखा था उसने इतने वानर देखकर कहा कि आज विधाता ने एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया। यह सुनकर सब डर गए। उस समय अंगद ने कहा- अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। श्रीरामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान् के परमधाम को चला गया। सम्पाती को जब जटायु की जानकारी मिली तब उसने जटायु को तिलाञ्जलि दी तथा उन सब को सीताजी का पता लगाकर बताने का कहा। सम्पाती ने दूरदृष्टि तथा मुनि के पवित्र आशीर्वाद से उन्हें बताया-
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज असका।।
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा २८-६
जो नाधइ सब जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर।।
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा २९-१
सम्पाती ने कहा त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन है, जहाँ सीताजी रहती है। इस समय भी वे सोच में मग्न बैठी है। जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धि निधान होगा, वहीं श्रीरामजी का कार्य करेगा, निराश होकर घबराओ मत मुझे देखकर मन में धीरज धरो। श्रीरामजी की कृपा से देखते ही देखते मेरा (सम्पाती का) रूप कैसा हो गया। बिन पंखों के बुरा हाल था, पंख उगने से अब सुन्दर हो गया हूँ। इसी समय समुद्र पार करने की योजना बनी ताकि लंका पहुँचा जा सके। सभी ने अपनी-अपनी क्षमतानुसार समुद्र पार करने का बताया तब जाम्बवान्जी ने कहा-
जरठ भयउँ अब कहर रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा।
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी।।
दो. बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय धरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा २९-४-२९ दो.
मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ। शरीर में पहले जैसा बल नहीं रहा है। जब खरारि (खर के शत्रु श्रीराम) वामन बने थे तब मैं युवा था और मुझमें बड़ा बल था। बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किन्तु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर (प्रभु के शरीर की) सात प्रदक्षिणाएँ कर ली थी। अंगद ने जाम्बवान्जी से कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा किन्तु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ सन्देह है। जाम्बवान्जी ने कहा अंगद तुम सब प्रकार से योग्य हो परन्तु तुम सबके नायक हो। तुम्हें कैसे भेजा जाए? तत्पश्चात बड़े सोच विचार के बाद जाम्बवान्जी ने हनुमानजी से समुद्र पार कर लंका जाने का कहा-
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ३०-२-३
हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप्पी साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। बुद्धि विवेक और विज्ञान का भण्डार (खान) हो। इस जगत में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्रीरामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार अर्थात् अत्यन्त विशालकाय हो गए। बस फिर क्या था? हनुमान्जी को उनके बल की याद दिलाते ही उन्होंने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस सारे समुद्र को खेल में लाँघ सकता हूँ।
ऐसा ही वर्णन अध्यात्मरामायण के किष्किन्धाकाण्ड में है। अंगद आदि को निराश देखकर जाम्बवान्जी ने पवनपुत्र हनुमानजी को उनकी भक्ति और पराक्रम की स्मृति दिला सागर पार करने की प्रेरणा देते हुए कहा-
रामकार्यार्थमेव त्वं जनितोऽ सि महात्मना।
जातमात्रेण ते पूर्वं दृष्टवोद्यन्तं विभावसुम्।।
पक्वं फलं जिघृक्षामीत्युन्प्लुतं बालचेष्टया।
योजनानां पञ्चशतं पतितोऽसि ततो भुवि।।
अतस्त्वद्धलमाहात्म्यं को वा शक्नोति वर्णितुम।
उत्तिष्ठ कुरु रामस्व कार्य न: पाहि सुव्रत।।
अ.रा. ४-९-१८-२०
महात्मा वायु ने श्रीराम कार्य के लिए ही आपको उत्पन्न किया है। जिस समय आपका जन्म हुआ था, उसी समय आप सूर्य को उदय होते हुए देखकर- ‘मैंÓ इस पके हुए फल को लेना चाहता हूँÓ ऐसा कहकर बाल लीला से ही पाँच सौ योजन ऊँचे उछलकर, पृथिवी पर गिरे थे। अत: ऐसा कौन है जो आपके बल का माहात्म्य वर्णन कर सके? हे सुव्रत! आप खड़े हो जाइए और यह राम कार्य करके हम सबकी रक्षा कीजिए। जाम्बवान्जी की प्रेरणादायिनी वाणी से हनुमान्जी अत्यन्त प्रसन्न हो गए। सिंहनाद करते हुए उन्होंने कहा- मैं समुद्र पारकर सम्पूर्ण लंका को ध्वंस कर माता जानकीजी को ले आऊँगा या आप आज्ञा दें तो मैं दशानन के गले में रस्सी बाँधकर और लंका को त्रिकूटपर्वत सहित बायें हाथ पर उठाकर प्रभु श्रीराम के सम्मुख डाल दूँ। अन्यथा केवल माता जानकीजी को ही देखकर चला आऊँ। पवनपुत्र हनुमान्जी के तेजोमय वचन सुनकर जाम्बवान् बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कहा-
दृष्ट्वैवागच्छ भद्रं ते जीवन्तीं जानकीं शुभाम्।।
पश्चाद्रमेण सहितो दर्शयिष्यसि पौरुषम्।
कल्याणं भवताद् भद्र गच्छतस्ते विहायसा।।
गच्छन्तं रामकार्यार्थं वायुस्त्वामनुगच्छतु।
अध्यात्मरामायण किष्किन्धाकाण्ड ९-२५-२७
वीर (हनुमान्)! तुम्हारा शुभ हो तुम केवल शुभलक्षणा जानकीजी को जीती-जागती देखकर ही चले आओ। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी के साथ जाकर अपना पुरुषार्थ दिखाना। हे भद्र आकाश मार्ग से जाते हुए तुम्हारा कल्याण हो। श्रीरामकार्य के लिए जाते समय वायु तुम्हारा अनुगमन करें।
हनुमान्जी ने जाम्बवान्जी से कहा आप मुझे उचित सीख दे रहे हैं वह तो ठीक है किन्तु लंका में और क्या करना है समझाकर कहिये क्योंकि आप बहुत वृद्ध और ज्ञानी भी है। तब हनुमान्जी ने कहा-
सहित सहाय रावनहि मारी। आनऊँ इहाँ त्रिकुट उपारी।
जामवंत मैं पूछउँ तो ही। उचित सिखावनु दी जहु मोही।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ३० (ख) ५
अध्यात्मरामायण के समान ही हनुमानजी ने श्रीरामचरितमानस में कहा- मैं रावण और उसके साथ के सहायकों सहित मारकर त्रिकूट पर्वत उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान्जी! मैं तुमसे पूछता हूँ तुम मुझे उचित सीख (शिक्षा) देना कि मुझे क्या करना चाहिए। यह सुनकर जाम्बवान्जी ने कहा- हे तात्! तुम लंका में जाकर इतना करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर श्रीराम से कह देना। फिर कमलनयन श्रीराम अपने बाहुबल से ही राक्षसों का संहार करके सीताजी को ले आएंगे वे मात्र लीला करने के लिए वानरों की सेना साथ लेंगे। इतना सुनकर हनुमान्जी समुद्र लाँघकर लंका गए तथा वहाँ सीताजी से मिलकर वापस श्रीराम के पास आए तब सर्वप्रथम जाम्बवान्जी ने ही यह शुभ सूचना श्रीराम को दी तथा कहा-
जामवंत कह सुनु रघु राया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ३०-१
जाम्बवान्जी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं वह सदा कल्याण में और निरन्तर कुशलपूर्वक रहता है। देवता मनुष्य और ऋषि-मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं।
शुक नायक रावण का दूत (गुप्तचर) श्रीराम की सेना देखकर आया तब उसने श्रीराम की शक्तिशाली वानर सेना का वर्णन उसके समक्ष किया। श्रीराम की सेना के वीरों का नाम बताया तथा उसमें जाम्बवान्जी का नाम वृद्ध होते हुए भी बल-बुद्धि विवेक में अत्यन्त प्रभावशाली निरुपित किया-
दो.- द्विबिद मंयद नील नल अंगद गद विकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ५४-०२
शुक ने श्रीराम की सेना के प्रमुख नाम रावण को ये बताए- द्विविद, मंयद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्- ये सभी बल की राशि है। अंगद भी श्रीराम के दूत बनकर लंका में रावण के पास युद्ध के पूर्व गए थे। रावण ने अहंकार के मद में अन्धा होकर अंगद से कहा- अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता ऐसा कौन योद्धा है जो मुझसे भिड़ सकेगा? तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दु:ख से दु:खी और उदास है। रावण ने कहा-
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ।।
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होड़ अब समरारुढ़ा।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड २३ (क) २
तुम (अंगद) और सुग्रीव दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो। बात मेरे छोटे भाई विभीषण की तो वह बड़ा डरपोक है। मन्त्री जाम्बवान् बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है। यहाँ रावण ने इन सबकी शक्ति बहुत कम आँकी है तथा रावण को इसका अन्त में परिणाम भोगना भी पड़ा। जाम्बवान्जी कभी भी युद्ध में निराश नहीं हुए तथा उनमें उस कठिनाई का समाधान करने की अपूर्व क्षमता थी। जब मेघनाद की वीरघातिनी शक्ति से लक्ष्मणजी को मूर्छा आ गई तब वे घबराएँ नहीं। हनुमान्जी द्वारा लक्ष्मणजी को मूर्च्छित अवस्था में श्रीराम के समक्ष लाने पर उन्होंने तुरन्त श्रीरामजी को हनुमान्जी द्वारा सुषेण वैद्य को लंका से लाने का परामर्श दिया यथा-
जामवंत कह बैद सुषेना। लंका रहइ को पठई लेना।
धरि लघु रुप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरन्त।।
श्रीरामचरितमानस लंका काण्ड ५५-४
लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे ले आने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्जी छोटा रूप घट कर गए और सुषेण (वैद्यराज) को उसके घर समेत तुरन्त उठा लाए। श्रीराम लीला करते हुए नागपाश में बँध गए। श्रीरामचन्द्रजी सदा स्वतंत्र, एक अद्वितीय भगवान हैं वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं-
रन सोभा लगि प्रभुहि बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो।।
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा।।
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा।।
बूढ़ जानि सठ छाँडेउ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही।।
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो।।
मारसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि धुर्मित सुरधाती।।
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ७३-७, ७४ (२९) २-३-४
युद्ध की शोभा के लिए श्रीराम ने अपने को नागपाश में बँधा लिया किन्तु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ। धैर्यवान जाम्बवान्जी ने वीरतापूर्वक समस्या का समाधान किया। उन्होंने देखा कि उनकी सेना को मेघनाद ने व्याकुल कर दिया। उधर श्रीराम नागपाश में बँध गए। मेघनाद अन्तर्धान होकर अभी तक युद्ध कर रहा था अब वह प्रकट हो गया दुर्वचन कहने लगा। मेघनाद को बड़ा क्रोध हो गया तथा उनको सम्मान देकर कहा अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। अरे अधम! अब तू मुझी को ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान्जी ने त्रिशूल पकड़ लिया और हाथ में लेकर मेघनाद की तरफ दौड़ कर छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान् ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर फिर पटक मारा तथा अपनी शक्ति दिखा दी। वरदान के प्रभाव से वह मारे नहीं मरता था तब जाम्बवान्जी ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया तथा बता दिया कि वे किसी युवा से आज भी कम नहीं है।
इस युद्ध के पश्चात मेघनाद यज्ञ सिद्ध करने पहुँच गया तब श्रीरामजी ने विचार किया कि यदि यह यज्ञ सिद्ध हो गया तो इसका वध करना बहुत अधिक कठिन हो जाएगा तब कहा- आप सब लक्ष्मण के साथ जाकर यज्ञ को विध्वंस करो तथा लक्ष्मणजी से कहा कि तुम ही उसका वध करना-
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं धीजै निसिचर सुनु भाई।।
जामवंत सुग्रीव विभीषण। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ७५-५
हे भाई! सुनो, मेघनाद को ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे राक्षस का नाश हो। हे जाम्बवान् सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों सेना सहित इनके साथ रहना।
श्रीराम एवं रावण के युद्ध में सेना के अनेक वानरों के मूर्च्छित हो जाने तथा हनुमान्जी भी उनके साथ मूर्च्छित हो गए तब बूढ़े जामवन्तजी ने अकेले ही रावण के युद्ध में छक्के छुड़वा दिए वह कोई युवा योद्धा भी नहीं कर सकता था। संध्या का समय था, सेना के वानरों एवं हनुमान्जी को मूर्च्छित देखकर जाम्बवान्जी रावण की ओर दौड़ पड़े-
संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी।।
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भटनाना।।
देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ९८-७-८
जाम्बवान्जी के साथ जो भालू थे वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकारकर मारने लगे। बलवान रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह श्रीराम की सेना के अनेक योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा। जाम्बवान्जी ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी। छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथों से भालुओं को पकड़ रखा था। तब ऐसा लग रहा था मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हो। रावण को मूर्च्छित देखकर फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्जी प्रभु श्रीराम के पास चले गए। रात्रि में यह देखकर सारथि रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा।
श्रीरामजी रावण का वध करके अयोध्या लौट आए तब उसका राज्याभिषेक हुआ। श्रीराम ने राज्याभिषेक के कुछ समय पश्चात् सबको विदा किया तब जामवंतजी को भी विदा किया गया यथा-
दो.- जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।
श्रीरामचरितामनस उत्तरकाण्ड १७ (क)
जाम्बवान्जी और नील आदि सबको श्रीरघुनाथजी ने स्वयं आभूषण-वस्त्रादि पहनाए। वे सब अपने हृदयों में श्रीरामचन्द्रजी के रूप को धारण करके चरणों में मस्तक नवाकर ले गए किन्तु प्रभु-पद-पंकज-प्रेमी जाम्बवान्जी श्रीराम से पुन: द्वापर में दर्शन का वचन लेकर वहाँ से प्रस्थित कर गए।

 

 

 

 

द्वद्वद्व

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